बिश्नोई पंथ ओर प्रहलाद भाग 5
प्रहलाद ने कहा पिताजी ! आप इन बिचारे निरपराध जनों को क्यों मार रहे है? इन सभी का मूल तो मैं हूं, मुझ मूल को ही प्रथम उखाड़िये, ये डाली-पत्ते तो स्वयं ही उखड़ जायेंगे। सूख जायेंगे। यदि इन डाली पत्तों को ही काटते रहोगे तो भी मूल जीवित रहेगा वह पुनः डाली पत्ते युक्त हो जाएगा। अपने बेटे की बात समझ में आ गायी और हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को खम्भे से बाँध दिया कि कहीं भाग न जाये।
भगवान विष्णु सर्व व्यापक है, सभी का खेल देख रहे हैं, अपने भक्तों का तथा अपने शत्रुओं का भी।भगवान ने अपनी व्यापकता प्रकट करने के लिए जिस खम्भे से प्रहलाद को बांधा था, उसी खम्भे में मुसिंह रूप में आकर प्रवेश होगये। भगवान स्वयं की लीला ही देख रहे है तथा स्वयं ही खेल रहे हैं।
माया मोह से ग्रसित मानव-दानव बेचारे क्या जाने? प्रहलाद को मारने के लिए हिरण्यकश्यपू ने खड़ग उठाया और पूछा अब बताओ तुम्हारे विष्णु कहाँ है? पहले मैं तुम्हारे विष्णु को मारूंगा फिर तुम्हें तथा तुम्हारे अनुयायियों को। अब बताओ- इस भयंकर खड़ग से तुम्हारी रक्षा कौन करेगा?
प्रहलाद ने कहा सुनो- मोह में तोह में, खड़ग मैं, रहे खम्भ के मांही। हरि विना खाली है नहीं, तव कर कोप डराहि।। प्रहलाद तुम क्या बोलते हो? क्या वह तुम्हारा विष्णु इस खड़ग, खम्भे तथा मेरे में भी है? यदि है तो ठीक है। मैं एक बार विष्णु को खोजने के लिए वैकुण्ठधाम गया था, वहाँ तो मिले नहीं, किन्तु अब मेरा कार्य बन गया है, तुम्हारे कथनानुसार मैं प्रथम विष्णु को मारूँगा, मेरे भाई का बदला लूंगा फिर तुम्हें मारूंगा।
हे शिष्य वील्ह! जिनकी मृत्यु निकट आ जाती है, वह इसी प्रकार से प्रलाप करता है। क्या यह प्रलाप इस समय करना उचित था, किन्तु मानव का स्वभाव है। मृत्यु निकट आने पर वह तो कुछ-कुछ बकता ही रहेगा। हिरण्यकश्यप क्रोध के वशीभूत था जोर से खड़ग द्वारा खम्भे पर प्रहार किया। खम्भ टूट गया, प्रहलाद का बंधन खुल गया। उसी खम्भे में से भयंकर गर्जना करते हुए भगवान विष्णु ही नृसिंह रूप में प्रकट हुए। आधा नर आधा सिंह बड़ा ही विचित्र रूप था।
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हिरण्यकश्यप ऐसा विचित्र रूप पहली बार ही देख रहा था आश्चर्यचकित होकर घबराने लगा, थर घर काँपने लगा। खड़ग हाथ से छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। ब्योंकि मृत्यु को साक्षात् देख रहा था। मारने तो दूसरों को चला था किन्तु देख रहा है स्वयं की मृत्यु को। थोड़ी देर के लिए तो भगवान ने क्रीड़ा की और अन्त में हिरण्यकश्यप को थका हुआ मानकर उसे मारने से पूर्व कुछ वार्ता करने लगे।
भगवान नृसिंह ने पूछा- हे दैत्यराज। अब बताओ कौन किसको मारेगा? तुमने तपस्या करके जो ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया था, अजर अमर होने के लिए क्या इस समय वे वरदान पूरे नहीं हो रहे हैं? यह देख मैं कौन नर हूँ या नारी, पशु या मानव, कोई शस्त्रधारी देव या दानव, अब बता तेरे को मारूं या रूक जाऊं।
तुमने मांगा था कि दिन में न मरूं रात्रि में न मरूं, अब बताओ यह दिन है या रात्रि। इस समय तो यह संध्या बेला है। न तो दिन और न ही रात्रि । तुमने कहा था न बाहर मू न अन्दर किन्तु तुम इस समय चौखट पर हो न तो अन्दर और न हो बाहर। तुमने कहा था कि शस्त्र से न मरूं, इस समय मेरे पास कोई शस्त्र नहीं है, केवल नाखून ही है।
हे दैत्यराज। तुमने कभी इस रूप की कल्पना भी नहीं की होगी तूं अजर अमर होकर घर आ गया तथा अत्याचार करने लगा। स्वयं को हो सभी कुछ मानने लगा। अभी मैं तेरे का मारता हूं ऐसा कहते हुए नरसिंह ने अपने तीखे नाखून से दैत्यराज हिरण्यकश्यप की छाती चीर डाली।
भगवान ने ऐसा भयंकर रूप धारण किया, ऐसा जानकर देवता लोग भी इस नवीन रूप का दर्शन करने आये, किन्तु किसी की हिम्मत नहीं पड़ो कि भगवान के विकराल रूप के सामने खड़ हो सके, स्तुति कर सके। देवताओं ने लक्ष्मी से कहा- हे देवी! तुम नित्यप्रति भगवान की सेवा करती हो, सामने जाकर स्तुति करो, जिससे भगवान प्रसन्न हो सके। यदि इस प्रकार के रूप को शांत नहीं किया तो सम्पूर्ण संसार को लील जाएंगे।लक्ष्मी की भी हिम्मत नहीं हुई कि सामने जा सके, न जाने क्या हो? आज भगवान बड़े हो विकराल अवस्था में है।
लक्ष्मी ने कहा-बेटा प्रहलाद! अब तो तुम्ही हमारे एक सहारे हो, तुम पर भगवान अतिप्रसन्न है, स्तुति करो। इन्हें यथास्थिति में लाने का प्रयत्न करो। प्रहलाद ने भगवान की उत्तम श्लोकों द्वारा स्तुति गायन किया तब भगवान प्रसन्न हुए।
प्रहलाद को अपनी गोदी में बैठाया और कहा-बेटा! तुमने बहुत कष्ट उठाये में जल्दी नहीं आ सका। मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ अब तुम जो कुछ भी माँगोगे वही मैं दूंगा। तुमने भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया है। तुमने सत्य का मार्ग पकड़ा है, कष्टों में भी तुमने धर्म को नहीं छोड़ा। तुम सच्चे भक्त हो, जो कुछ भी हो अवश्य मांगो।
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प्रहलाद ने हाथ जोड़ते हुए विनती की- हे दीनानाथ ! आपके सिवाय मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए। आप ही मिल गये तो मुझे सभी कुछ मिल गया। मेरे पिताजी अज्ञानतावश आपसे विरोध करते रहे हैं आपसे विमुख हो जाने से उनकी कहीं दुर्गति न हो जाये। मेरे पिताजी को सद्गति मिले।
भगवान ने कहा- है प्रहलाद! कोई जीव भगवान से भले ही विमुख हो जाये किन्तु उनका ईश्वर कभी उनसे विरूद्ध नहीं होता। वह तो सभी का पालन-पोषण करता है, वह कैसे विरुद्ध होगा तुम्हारे जैसे जिनके पुत्र हो उन्हें सद्गति का संशय नहीं होना चाहिए। तुम्हारे पिता तीन युगों में तीन बार जन्म लेंगे। एक तो पूरा हो चुका है, अभी उनके दो जन्म और बाकी है। तीसरे जन्म में उनकी गति सुनिश्चित है। ऐसा ही उनके भाग्य का खेल है। उनकी चिंता तुम छोड़ो, तुम अपनी बात करो।
हे भगवन! मेरे पिता तो अवश्य ही अन्यायकारी थे किन्तु उनकी प्रजा 33 करोड़ है, उनका तो उद्धार होना ही चाहिये। ये तो बेचारे निरपराधी है, इस लोक में कोई भी व्यक्ति दुःखी न हो, ऐसा वरदान में मांगता हूँ। नृसिंह भगवान ने बतलाया कि इस समय सतयुग में तो तुम्हारे साथ पाँच करोड़ का ही उद्धार होगा। तुम्हारे पक्के अधिकारी शिष्य तो इस समय पाँच करोड़ ही है।
इस समय तो तुम इनसे ही संतोष करो। त्रेतायुग में सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र होंगे, उनके साथ सात करोड़ का उद्धार हो जायेगा द्वापर युग में धर्मात्मा युधिष्ठिर होंगे, उनके साथ नौ करोड़ का उद्धार हो जायेगा कलयुग में ऐसा धर्मात्मा-सत्यवादी राजा होना असंभव है। उसी समय मै स्वयं ही आऊंगा और शेष 12 करोड़ का उद्धार करूंगा इस समय तो केवल पांच करोड़ का ही उद्धार हो सकेगा भगवान नृसिंह का आश्वासन सुनकर प्रहलाद अतिप्रसन्न हुए, जय-जयकार करने लगे।
अपने पिता की मृत्यु का कुछ भी शोक नहीं किया। भगवान नृसिंह कहने लगे-प्रहलाद। अब तक तुमने अपने लिए भी कुछ नहीं मांगा, कुछ अपने लिए भी तो माँग लो। प्रहलाद कहने लगा-हे देव मैं अपने लिये क्या माँगू, मुझे आप मिल गये तो सभी कुछ मिल गया। हे देव। आपकी भक्ति सदैव बनी रहे यही मैं आपसे मांगता हूँ।
भगवान ने कहा-यह तो पहले से ही तुम्हारे पास है किन्तु मैं तुम्हें उपहार रूप में कुछ देना चाहता इस समय तुम्हारे पिता की मृत्यु हो चुकी है. प्रजा राजा विहीन हो गयी है, अब तुम राज करो। यह म तुम्ह आज्ञा देता हैं, इसे तुम स्वीकार करो। नीति से राज करते हुए प्रजा का पालन करो। प्रजा को सुख प्रदान करो, तभी तुम्हारे अन्य वरदान सफल होंगे। ऐसा कहते हुए भगवान नृसिंह अन्तध्यान हो गए।
वील्हा ने अपने गुरु नाथाजी से पूछा- हे गुरुदेव । अब आगे मैं प्रहलाद पंच के विस्तार की कथा एवं प्रहलाद कुल परमपरा सुनना चाहता हूं।भगवान तथा भक्त की लीला श्रवण करने से मेरी श्रद्धा – भक्ति उतरोतर बढ़ती ही जा रही हैं।