स्वर्ग खोलने की कूंची
बात-एक समइये देवजी जमाती देखी खुशी हुवा, खवां चमकण लागा, देवजी भाय आया, साथरिया यौँ कहण लागा, देवजी कहै- सुरगां की पोल को कीवाड़, पचास मण को थ, जदि विसनोई कहै देवजी उघड क्यां करि थ, देवजी कह एक शबद उघड़, जमात कह देवजी किसो सबद, कीसी करणी, झाभोजी कह-स्त्री पुरुष दोनो एक मत कीया, सुध लीलंग मत। आठ प्रकार करे धरम, नुव चाल, अजर जर, ताह का हाथ आकीय, सबद बोल्य स वा कीवाड़ उघड़। सबद कुंची को।
नाथोजी उवाच:- एक समय श्रीदेवजी प्रसन्न होकर के जमात को देखने लगे-जब कभी भी प्रसन्न होते तो शरीर में रोमांचित हो जाते थे। ऐसा ही जमात के लोगों ने तथा मैनें देखा था। उस समय जो वार्तालाप हुआ वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ।
सुनो! श्रीदेवी स्वयं ही साथरियों से कहने लगे- मैं तुम्हें स्वर्ग के बारे में बतलाता हूँ।वहां पर जाने का अधिकार तो सभी का ही है। किन्तु स्वर्ग के प्रवेश का द्वार किवाड़, पचास लाख मन का है। तुम लोग कैसे खोल पाओगे, दरवाजा खुले बिना अन्दर प्रवेश असम्भव हैं।
साथरियों ने पूछा- हे देवजी! आप ही कृपा करके बतलाओ कि इतना भारी किवाड़ खुलेगा कैसे?हम लोग तो इतने ताकतवर नहीं है जो उस किवाड़ को खोल सकें देवजी ने बजाया-किवाड़ खोलने का उपाय मैं तुम्हें बतलाऊंगा। आप ध्यानपूर्वक सुनो देवजी ने कहा- प्रथम उपाय तो शब्द ही है।
जमात ने पुनः पूछा- कौनसा शब्द? कैसे शब्द से उघड़ेगा? कौन से कर्त्तव्य कर्म करने से उघडेगा जाम्भोजी ने यह कुंचीवाला शब्द सुनाया तथा कुछ कर्तव्य कर्म भी बतलाया। जिससे किवाड़ उघड़ेगा।
स्त्री पुरुष दोनों का मत एक हो, तभी स्वर्ग किवाड़ उघड़ेगा। क्योंकि गृहस्थ की गाड़ी दो पहियों पर चलती है। एक के बिना दूसरा व्यर्थ हो जायेगा। गृहस्थ का व्यवहार शुद्ध पवित्र होगा तो इहलोक घर ही स्वर्ग बन जायेगा। यह घर यदि बिगड़ गया तो परलोक भी बिगड़ जायेगा। इसलिए आपसी प्रेमभाव होगा वही घर स्वर्ग है।
शुद्धता, पवित्रता, आचार-विचार, उच्चकोटि का होना, एक ईश्वर की भक्ति, विश्वास ये सभी स्वर्गद्वार खुलने के उपाय हैं। यदि ऐसा नहीं होगा तो भटक जायेंगे। आठ प्रकार के धर्म का पालन करे । आठ प्रकार का धर्म- योग के अष्टांग ही है जैसे- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधी। इन आठ प्रकार के नियमों को उन्नतीस नियमों के अन्तर्गत समाहित हो जाना है। इनका पालन करना ही आठ प्रकार के धर्म पालन करना है।
नम्रता का व्यवहार रखें, जरणा एवं सहनशीलता अपनाएं तो उसके हाथ से स्वर्ग का दरवाजा खुल सकेगा अथवा अन्त समय में रांची वाल शब्द का उच्चारण करने से भी स्वर्ग के किवाड़ उघड़ जाते हैं। इस प्रकार से जमात के लोगों को सचेत करते हुए यह कूंचीवाला शब्द सुनाया
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कुंचिलावला शब्द-30 ओ३म् आयो हंकारो जीवड़ो बुलायो, कह जीवड़ा के करण कमायो।
थरहर कै जीवड़ो डोलै, उत माई पीव कोई न बोले।
सुकरात साथ सगाई चालै, स्वामी पवना पाणी नवण करतो।
चंदे सूरे शीस निवन्तो, विष्णु सूरां पोह पूछ लहन्तो।
इहिं खोटे जनमन्तर स्वामी, अहनिश तेरो नाम जपंतो।
निगम कमाई मांगी मांग, सुरपति साथ रातू रंग।
सुरपति साथ सुरां सूं मेलो, निज पोह खोज ध्याईये।
भोम भली कृष्ण भी भला, बूठो है जहां बाहिये।
कृष्ण करो सनेही खेती, तिसिया साख निपाईये।
लुणचुण लीयो मुरातब कियो, कण काजै खड़े चाहिये कणतुस झेड़ो होय नवेड़ो,गुरुकुल पवण उड़ाईये।
पवण डोलै तुस उडैला, कण ले अर्थ लगाईये।
यूं क्यूं भलो जे आप न फरिये, अवरां अफर कराइये।
यूं क्यूं भलो जे आप न डरिये, अवरां अडर डरिये।
यूं क्यूं भलो जे आपन जरिये, अवरां अजर जरिये।
यूं क्यूं भलो जे आप न मरिये, अवरा मारण धाइये।
पहले किरिया आप कमाइये, तो औरा न फरमाइये।
जो कुछ कीजै मरणै पहलै, मत भल कहि मर जाइये।
शौच स्नान करो क्यूं नाही, जिवड़ा काजल नहाये।
शौच स्तान कियो जिन नाहीं, होय भंतूला बहाइये।
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कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 8 (Kartik Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 8)
शील बिबरजित जीव दुहेलो, यमपुरी ये बताइये।
रतन काया मुख सूवर बरगो, अबखल झंखे पाइये।
सवामण सोनो करणे पाखो, किण पर वाह चलाइए।
एक गऊ ग्वाला ऋषि मांगी, करण पखो किण सुरह सुबच्छ दुहाइये।
करण पखो किन कंचन दीन्हों, राजा कवन कहिए।
रिण ऋध्ये स्वामी करण पाखो, कुण हीरा डसन पुलाइये।
किहिं निश धर्म हुवै धुर पुरो, सुर की सभा समाइये।
जे नविये नवणी, खविये खवणी, जरिये जरणी, करिये करणी।
तो सीख हुयां घर जाइये। अहनिश धर्म हुवै धुर पूरो, सुर की सभा समाइये।
किहि गुण बिदरो पार पहोतो,करण फेर बसाइये।
मन मुख दान जु दीन्हों करणे, आवागवण जु आइये।
गुरु मुख दान जु दीन्हों बिदरै, सुर की सभा समाइये।
निज पोह पाखो पार असीपुर, जाणी गीत बिवाहे गाइये।
भरमी भूला बाद विवाद, आचार विचार न जाणत स्वाद।
कीरत के रंग राता मुरखा मन हठ मरै, ते पार गिराये कित उतरे।
इस प्रकार से कूची वाला शब्द श्रीदेवजी ने जमात के प्रति सुनाया और सचेत करते हुए कहा-आयो हंकारो अर्थात मृत्यु आ गयी। जीव को बुलावा आ गया अहंकार ही मृत्यु है। जहां कहीं भी किसी भी अवस्था में अहंकार पुष्ट हुआ तो जानो कि स्वयं शुद्ध आत्मा जो सद्चित आनन्दरूप है उसकी मृत्यु हो गयी। वह अहंकार की काली बादली से ढक जाती है।
अहंकार जीव और ईश्वर, आत्मा एवं परमात्मा को मिलने नहीं देता। यही सबसे बड़ी मृत्यु है जो स्वयं के आनन्द स्वरूप से मिलन नहीं हो पाता। संसार के दुख एवं दुःखों के कारणों से झूझता है। कहीं कोई ज्ञान की किरण दिखाई नहीं देती। ऐसी दशा में स्वर्ग सुख की कल्पना करना ही व्यर्थ होगी जब अहंकार रूपी मृत्यु का साम्राज्य होगा।
जीव इहलोक में जीता तो है किन्तु कंपायमान होकर जीता है। आगे भी कर्मों का हिसाब-किताब लेखा-जोखा सामने उपस्थिति होगा तो थर-थर कांपेगा। वहां पर कोई भी सहायक नहीं होगा। न वहां माता-पिता-भाई-बन्धु ही साथ देंगे। ये तो यहीं पर छूट जायेंगे। दुःख तो व्यक्ति अकेला ही भोगेगा अन्य कोई साथ नहीं है। सुकर्म किया हुआ साथ जावेगा।
पूर्व जन्म के कर्म के कारण ही यह देह मिली है। इहलोक में भी सुकर्म ही सुख देता है। पापकर्म दुःख का हेतु बन जाता है। अहंकार से निवृत्त होकर, अपने से भी बड़ा कोई ओर है उन साक्षात् देवता,स्वामी, सूर्य, चन्द्र, पवन, अग्नि आदि को प्रणाम करना चाहिये था किन्तु अपने सामने अन्य को न समझा। दिन रात विष्णु का जप करता तो स्वर्गद्वार खुला ही था।
यह जीवन कृषक जीवन है, इसे सचेत होकर जीये तो फल मधुर प्राप्त होगा अन्यथा आलसी किसान की भांति बीज ही खो बैठेंगे। आते समय तो बीज लेकर आया था किन्तु जाते समय वह भी खोका जायेगा। इसमें क्या भलाई है जो स्वयं तो फल प्राप्ति पर्यन्त कर्म करता नहीं है, दूसरों को कहता है। स्वा तो ईश्वर से डरता नहीं है, अन्य दूसरों को डराता है, नर्क का भय दिखाता है।
स्वयं तो काम,क्रोध, लोभ, मोह आदि को समाप्त करता नहीं है, दूसरों को कहता है। यह तो उसका कहना व्यर्थ ही है। स्वयं तो मरता नहीं है किन्तु दूसरों को मारने के लिए तैयार हो जाता है। सर्वप्रथम कर्म स्वयं करे तो फिर दूसरों से कहे यही कहना लाभदायक होगा। शौच स्नान आदि शुद्धता पवित्रता ही धर्म का मूल है। यहीं से चूक कर दी तो वह भूत प्रेतादि अशुद्ध दुःखदायी योनियों में जन्म लेगा शील को त्याग दिया है तो वह यमपुरी में सताया जायेगा उन्हें स्वर्ग दुर्लभ है।
कर्ण ने स्वर्ण का दान दिया किन्तु मनमुखी होकर दिया तो उस दान का फल भी जन्म मरण के बन्धन से छुटकारा नहीं दिला सका। दान से भी आत्मा महान है इसलिए आत्मधर्म का पालन करना था गुरुमुखी होकर विदुर ने दान दिया, वे देवताओं की सभा में शोभायमान हुए। इसलिए कोई भी कार्य गुरुमुखी होकर ही करे वही फलदायी है।
यदि आपको देवता की सभा में विराजमान होकर शोभायमान होना है तो इस संसार में जीवन की विधि समझे । स्वर्ग सुख के मूल आधार है कि आप नमन भाव से जीयें। क्षमा करते हुए जीयें जरणा रखते हुए जीयें। कर्त्तव्य कर्म करते हुए जीयें। यही अन्तिम सीख है। इसी शिक्षा को स्वीकार करते हुए वापिस अपने घर को जाओ। इस संसार के घरबार असली नहीं है।
असली घर तो आगे है जहां से आप आये हैं वहीं पर जाने की पुनः कोशिश चल रही है। वहां जाने के बाद वापिस जन्म मरण के चक्कर में न आना पड़े। अपना पन्थ अपना धर्म खोजिये। वही आपको वापिस पंहुचाने में समर्थ है। अन्य पंथ अन्य धर्म आपको नहीं पहुंचा पायेगा। इसलिए स्वधर्म ही श्रेयस्कर है। परधर्म भय पैदा करने वाला है।
यदि स्वयं सुख चाहते हैं तो स्वकीय कीर्ति से परहेज करें। मैं ही बड़ा हूँ, मेरा ही नाम हो, यही अहंकार की पुष्टि करता है। अहंकार की पुष्टि ही मृत्यु है। इसलिए मृत्यु से त्राण पाने के लिए नम्रता, शीलता, समर्पण भाव, एक विष्णु की शरणागति, शुद्धता, पवित्रता आदि गुणों को समाविष्ट करें। अवगुणों का परित्याग करें, तभी पचास लाख मन का किवाड़ हाथ लगते ही खुल जायेगा।