श्री गुरु जम्भेश्वर से उतरकालिन समराथल …….(-: समराथल कथा भाग 14:-)

jambh bhakti logo
श्री गुरु जम्भेश्वर से उतरकालिन समराथल …….(-: समराथल कथा भाग 14:-)
समराथल
समराथल

वि. सं. 1508 भादव कृष्ण अष्टमी के समय इस मरूभूमि में जम्भेश्वर अवतार से लेकर सं. 1593 मिगसर कृष्ण नवमी तक अबाध गति से जम्भेश्वर जी ने इस सम्भराथल पर अधिक समय तक निवास किया था तथा अन्त समय में भी अपनी प्रिय तपस्थली तथा ज्ञानोपदेश भूमि को छोड़ दिया था और सम्भराथल से पूर्वोत्तर इसान कौण की पवित्र दिशा में लालासर की साथरी पहुंचकर उस पञ्च भैतिक दृष्ट शरीर का परित्याग किया था।

यही परम गुरुदेव को इष्ट था तथा उनके पञ्चभूतों के अवशेष को संतों ने उन्हीं की आज्ञानुसार इस समय प्रसिद्ध मुकाम के मन्दिर के नीचे चौबीस हाथ गहरी नींव खोदकर समाधि दी गई थी जिसके ऊपर कालान्तर में भव्य मन्दिर का निर्माण हुआ था। वही सम्भराथल था जहां पर कभी चहल-पहल मानवों का आना-जाना ज्ञान वार्ता का श्रवण मनन तथा शब्दों की ध्वनि का उच्च स्वर से गान होता था।    

यज्ञ का पवित्र धर्म देश देशान्तरों को अति पवित्र करता हुआ दृष्टिगोचर होता था। वहां पर सदाव्रत आगन्तुकों की सेवा सुश्रुषा हुआ करती थी, ये सभी उन्हीं सर्वेश्वर के स्वकीय धाम में चले जाने के कुछ वर्ष पश्चात् ही धीरे-धीरे लुप्त हो गये थे कभी ज्योर्तिमय देदीप्यमान परमेश्वर की ज्ञान ज्योति से जनमानस अवलोकित होता था किन्तु पश्चात् तो वह ज्योति सूर्य सदृश लुप्त प्रायः हो चुकी थी। उत्सव समय होने वाली खुशी उत्सव समाप्ति पर लुप्त होकर विषाद उत्पन्न कर दिया करती है। उसी प्रकार से सम्भराथल की भी वही दशा हो चुकी थी। वैसे तो जम्भदेव जी ने बताया था कि-

“जां जांभवन आसण, पाणी आसण। चंद आसन,सूर आसन। गुरु आसन समराथल, कहे सतगुरु भूल मत जाइयो, पड़ेला अभै दोजखै।।99।।

अर्थात् जिस प्रकार पवन,जल,चन्द्र,सूर्य का आसान स्थिर है ये अपनी ये अपनी मर्यादा कभी नहीं छोड़ते, समय पर निश्चित ही अपने कार्य पर उपस्थित हो जाते हैं। उसी प्रकार से मेरा भी आसन सम्भराथल पर अडिग है और भविष्य में भी रहेगा। यह वार्ता आप लोगों को सतगुरु रूप से बतला रहे हैं। भूल नहीं जाना, यदि भूल गये तो दौरे नरक में गिरेंगे।  

उत्तर प्रदेशीय बिश्नोईयों की जमात प्रत्येक छठे महीने गुरु जम्भेश्वर जी के दर्शनार्थ समराथल आया करती थी क्योंकि इधर तो वर्षा रुक जाने के पश्चात् आसौज का महीना मौसम की दृष्टि से ठीक पड़ता था। उधर सर्दी कम हो जाने के पश्चात् गर्मी आगमन से पूर्व बसन्त ऋतु में फाल्गुन की अमावस्या को उन लोगों का आगमन होता था तथा रबी-खरीफ की फसलें भी मौके के अनुसार निकल जाया करती थी तो यह परम्परा उसी समय से ही चली आ रही थी तथा इन्हीं दोनों परम्पराओं ने आसौज तथा फाल्गुन के दो मेलों का रूप धारण कर लिया था जो अद्यपर्यन्त चले आ रहे है।    

वैसे तो सम्भराथल प्रायः शून्य ही रहने लगा था किन्तु इन दोनों मेलों पर मुकाम समाधि मन्दिर में दर्शनार्थी आया करते थे। मुकाम में निवास करते थे किन्तु प्रमुख अमावस्या को हवन सम्भराथल पर ही हुआ करता था। अमावस्या के प्रात:काल ही सभी लोग एकत्रित होकर उस शून्यवास में जाकर शब्दों की ध्वनि से वातावरण को गुंजायमान किया करते थे तथा आकाश मण्डल को यज्ञ की धूम से भर दिया करते थे। वर्ष में दो बार तो यह कार्यक्रम चलता ही था तथा प्रत्येक अमावस्या को कुछ स्थानीय लोग भी एकत्रित होकर यज्ञ करते थे। यही परम्परा लगभग सं. 2000 तक चलती रही थी।    

यहां तक इतना लम्बा समय गुजर गया था। प्राचीन व्यवस्था जल-अन्न की सभी व्यवस्था हो चुकी थी। लोगों की श्रद्धा तो अटूट ही थी किन्तु करते भी क्या? परिस्थितिवश कुछ भी करने में असमर्थ हो चुके थे। गुरु जम्भदेव जी के द्वारा निर्देशित धर्म नियम ढीले पड़ चुके थे। वृक्षों की कटाई प्रारम्भ हो चुकी थी। अब वह घना अबढ़ वन नहीं रहा था। चारों ओर मरुभूमि का विस्तार होने लग गया था। जिससे वर्षा कम होती थी, अकाल ज्यादा पड़ा करते थे। लोगों की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं थी। उस समय तक देश भी गुलाम हो चुका था।

हाथ जोड़ विनती करू तो सुनियो चित्त लगाये - विनती भजन (Shyam Puspanjali Shri Khatu Shyamji Vinati)

मिशरी से मिठो नाम: भजन (Mishri Se Mitho Naam)

बावन श्लोकी श्री गुरुचरित्र (Bavanna Shokli Gurucharitra)

यदि उससे पूर्व देश आजाद भी था तो क्या? किसानों की मेहनत का फल उन्हें केवल पसीना ही मिलता था। राजपूतों का राज्य था, वे खेतों की निपज तो लूटकर ले जाया करते थे तथा वही पसीने की कमाई से पत्थर इकट्ठा करने में लगा दिया करते थे किसानों को पीछे भूख ही शेष रह जाती थी। ऐसी दशा में उन्नति भी तो क्या कैसे कर पाते?  

जब तक किसान स्वयं भरपेट भोजन, वस्त्र तथा मकान आदि आवश्यक वस्तुएँ नहीं जुटा पायेगा तब तक उसे धर्म कर्म की क्या सूझेगी। वह कैसे किसी धार्मिक स्थान का निर्माण करेगा उस समय तो यह परिस्थिति थी कि एक जगह रुकना भी अति कठिन हो रहा था “जहां बूठो तहां बाहिये, कृष्ण करो सनेही खेती तिसिया साख निपाइये” (शब्द 30) जहां पर भी वर्षा हो वहीं पर जाकर खेती करो तथा परिश्रम द्वारा उस वर्षा पर निर्भर खेती को थोड़े जल से भी निपजाने का प्रयत्न करो।

इस महावाक्य को मन्त्र मान करके विश्नोई लोग टिकाऊ कम ही रह पाते थे एक स्थान से दूसरे स्थान में गोवा से चले जाते थे जिसके परिणामस्वरूप मध्य प्रदेश, मालवा, पंजाब, हरियाणा आदि अनेकों दूर-दूर स्थानों में जाकर लोग बस गये थे, जो अब भी निवास कर रहे हैं। इसलिये हम कह सकते हैं कि इन चार सौ वर्षों में मरू देश का निवासी अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ नहीं कर सका था। न ही कोई शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध हो पाया था।

लोग आर्थिक परिस्थितियों में जूझते हए ही अपना अमूल्य जीवन नष्ट प्रायः कर दिया करते थे अधिकतर लोगों की तो यही परिस्थिति थी किन्तु कुछ लोग अध्यात्म गतिविधि की तरफ अपना झुकाव रखते थे। जिस वजह से साहित्य क्षेत्र में तो कुछ न कुछ हलचल हो रही थी।  

समराथल कथा भाग 15

Picture of Sandeep Bishnoi

Sandeep Bishnoi

Leave a Comment