बिश्नोई पंथ ओर प्रहलाद भाग 4

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बिश्नोई पंथ ओर प्रहलाद भाग 4

बिश्नोई पंथ ओर प्रहलाद भाग 4
बिश्नोई पंथ ओर प्रहलाद भाग 4

प्रहलाद ने कहा-सुनो बन्धु जनों । यह आपके हाथ में जल देवता है तथा आपके सामने यज्ञदेवता अग्नि है, चारों ओर सर्वत्र व्यापक पवनदीप परमेश्वर है, इन्ही प्रमुख देवताओं के सामने आप लोग संकल्प करो, अपने निजी जीवन का मार्ग स्वयं ही चुनो। तुम्हें हिरण्यकश्यप का साथ देना है या मेरा साथ निभाना है। पिताजी के तरफ तो राज्य सुख सुविधा का लोभ है किन्तु मेरी तरफ से कष्ट तथा तपस्या का दुःखमय जीवन है।  

याद रखो। प्रारम्भ के कष्टदायी कार्य अन्त में सुमधुर फलदायी होते हैं। प्रारम्भ में सुखदायी कार्य परिणाम में विष की तरह होता है आप लोग जल देवता को हाथ में लेकर संकल्पवान हो जाओ उसी से हो देवता द्वारा तुम्हारी रक्षा होगी। आप लोग मेरे को देख ही रहे हैं, मैनें सत्य संकल्प कर लिया अब चाहे कितना ही कष्ट आये वे कष्ट मुझे दुःख नहीं दे सकते।

जो लोग थोड़ी सी विपत्ति से ही डांवाडोल हो जाते हैं, वे कभी कुछ कार्य नहीं कर पायेंगे। जब आप सस्नेह मेरे पास आये हैं तो मुझे लगता है कि आप के भी भक्ति का बीज विद्यमान है किन्तु हिरण्यकश्यप के भय के मारे अंकुरित नहीं हो पा रहा है। ये मेरे पिताजी तो भयंकर अकाल है जो किसी को पनपनें ही नहीं देंगे।    

हे बन्धु गणों । तुम्हें फलने-फूलने का पूर्ण अधिकार है। आज से सभी निर्भय हो जाओ तथा उस परमात्मा-विष्णु को याद करो। उसी को ही माता-पिता, भाई-बन्धु तथा राजा सभी कुछ स्वीकार करो। वही तुम्हारी रक्षा करेगा।    

अग्नि से भी प्रहलाद बच गया जिसको स्वयं होलिका भी नहीं जला सकी। हिरण्कश्यपू एवं उनके अनुचर भी उस प्रहलाद का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके अवश्य ही कोई अलौकिक शक्ति कार्य कर रही है, हम भी उस परमशक्ति का आश्रय ग्रहण करें। वही हमारा अन्तिम लक्ष्य है। ऐसा विचार करते हुए अधिकतर जनता ने मन ही मन प्रहलाद का अनुसरण किया।

कुछ लोग तो अभी दबी जुबान से प्रहलाद का समर्थन करते थे क्योंकि अब तक हिरण्यकश्यप का भय विद्यमान था तथा कुछ लोग खुलकर प्रहलाद का समर्थन करते और हिरण्यकश्यप के विरोध में खड़े हो गये अब तक प्रभु की अनन्य भक्ति में सभी तो प्रवीण नहीं थे। अधिकारी भेद से ही भक्ति का मार्ग चुना था।    

ऐसा कहा जाता है कि उस समय कुल जनसंख्या 33 करोड़ थी। उनमें पांच करोड़ ही प्रहलाद के अनुयायी पूर्ण भक्त थे। बाकी तो डांबा-डोल की स्थिति में थे। उनमें अब तक दृढ़ता नहीं आयी थी। ऐसी अवस्था में उतरोत्तर प्रहलाद पंथ का विस्तार ही हो रहा था हिरण्यकश्यपू की तरफ जनता मुँह मोड रही थी, क्योंकि हिरण्यकश्यप के पास केवल अहंकार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। प्रहलाद के पास निर्मलता, सज्जनता, समर्पणता एवं ईश्वरीय दिव्यता थी। लोगों का समर्पित होना स्वाभाविक था।    

हिरण्कश्यपू ने एक दिन प्रहलाद को अपने पास बुलाया, प्रेम से बैठाया और कहने लगा- हे पुत्र। तूं मेरे से विवाद मत कर । आज तक तुमने मेरी एक भी बात नहीं मानी, किन्तु आज तुम मेरे कहने से भक्ति छोडदे, मैं तुम्हें आज ही राजतिलक देकर राजा बना दूंगा। नहीं तो, मैं आज ही तुम्हें स्वयं मार डालूंगा ।

अब तक तो मैं पुत्र मोह के वशीभूत होकर स्वयं मारने को तैयार ही नहीं हुआ। तुमने राजद्रोह किया है, इसलिए मैं क्षमा नहीं करूंगा। मेरी प्रजा को भी तुमने बहला-फुसलाकर अपनी ही तरह विष्णु की भक्ति सिखला दी है। पहले तो तू अकेला था किन्तु इस समय तुम्हारे चेलों की संख्या बढ़ गई है मैनें यह सभी अपनी आंखों से देखा एवं कानों से सुना भी है। अब तेरा अपराध क्षमा करने योग्य कदापि नहीं है।    

पिता की ऐसी अधार्मिक क्रूर बातें प्रहलाद ने सुनी और कहने लगा- पिताजी आ ऐसी बातें न करें,न तो मुझे राज-पाट तिलक चाहिये और न ही मुझे आपके कठोर वचनों से ही डर है। जो एक बार भक्ति अमृतरस का पान करले वह तुम्हारे राजपाट रूपी विष का क्या करे? इस मृत्यु को जानबूझकर गले क्यों लगाये?  

मेरा कहना मानो तो एक बार आप भी विष्णु का स्मरण एवं समर्पित होके देख लीजिये आपको भी आनन्द की कितनी अनुभूति होती है। फिर आप कभी ऐसी वार्ता नहीं करेंगे। भगवान विष्णु बड़े ही दयालु है आप पर भी अवश्य ही कृपा करेंगे। वे भगवान तो भक्तवत्सल दीन दयालु अतिकृपालु है। अति दुराचारी पापी से पापी को भी भगवान ने अपना बना लिया, उन्हें सर्वोच्च पद प्रदान किया, आप नि:संकोच होकर शरण में आइये और जीवन को अमृतमय बनाइये।  

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बेटे प्रहलाद ने पिता हिरण्यकश्यप को सुन्दर हितकर वचन कहे किन्तु असुर बुद्धि पिता को ये वचन जहर की तरह लगे उन्हें ग्रहण नहीं किया। प्रहलाद को पकड़कर विश्वकर्मा द्वारा रचित जेल में डाल दिया। उनके जितने भी अनुयायी थे उन्हें भी साथ में ही डाल दिया। प्रहलाद के मुख्य अनुयायियों को ही जेल में डाला गया अन्य साधारण लोगों को छोड़ दिया।    

ऐसी विचित्र जेल विश्वकर्मा द्वारा विरचित थी। जहाँ पर अन्न जल का नाम ही नहीं था। केवल सूर्य, वायु एवं आकाश ही था। इनसे ही जीने के लिए मजबूर कर दिया था। अन्न, जल, के बिना केवल श्वास के द्वारा जीना कितने दिन हो सकता है। आखिर तो एक दिन प्रहलाद को अपने साथियों सहित मरना ही था।    

अन्य प्रहलाद के बंदी साथी तो ऐसी दशा देखकर घबरा गये प्रहलाद ने कहा भाईयों! आप निश्चित रहो! जिसने हमको संसार में भेजा है वही हमारा पालन पोषण भी करेगा। आप लोग तो केवल विष्णु का हो ध्यान करो। बाकी कार्य वही करेगा वह किस रूप में करता है, वह तुम देखते रहो। तुम्हें घबराने की आवश्यकता नहीं है। यदि वह हमें नही बचाना चाहेगा, तो हम कैसे बचेंगे और यदि वह बचाना चाहेगा तो भला यह बतलाओ कि हमें मारने वाला कौन है ?    

सभी बंदो परमात्मा-विष्णु का ही ध्यान करने लगे, अन्य सभी आशाएँ छोड़ दी। अब उन्हें मृत्यु का भय नहीं रहा फिर हिरण्यकश्यप का भय कैसे हो सकता था ओंकार की ध्वनि से आकाश गुंजायमान हो रहा था।

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उसी समय ही भगवान विष्णु ने देवताओं को आदेश दिया कि मृत्युलोक में जाओ वहां पर भक्त प्रहलाद व उनके चेलों की रक्षा करो। इन्द्र देवता मेघ बनकर वर्षा करने लगे। वायु देवता शीतल सुगन्ध बनकर वायु का प्रसार करने लगे। सूर्य देवता-सर्दी-गर्मी की समानता प्रदान करने लगे धरती माता उपजाऊ होकर धन-धान्य तथा फलों से परिपूर्ण हो गयी। अनेकों मेवा मिष्ठान उपजने लगे।    

परमात्मा चाहे तो क्या नहीं हो सकता। जो हम कहेंगे वही तो हमें मिलेगा, भगवान की कृपा से जेल में भी मंगलाचार होने लगा। जेल में पड़े हुए एक वर्ष व्यतीत हो गया था। एक वर्ष पश्चात हिरण्यकश्यपू ने अपने अनुचरों को पास में बुलाया और कहने लगा- हे अनुचरों! आप लोग जाकर देखिये, मेरा कुपुत्र अपने संगो साथियों के साथ अब तक मर गया होगा। मैनें बाहर से सम्पूर्ण सामग्री बन्द कर दी थी। भूख से तड़प-तड़प करके मर गये होंगे।    

अनचरों ने जाकर दरवाजा खोलकर के देखा तो अन्दर भक्त लोग देवताओं की तरह बैठे हुए हैं। वे इतने तेजस्वी हो गये हैं कि सूर्य की भांति दिखाई देते हैं उन्हें आखों से देखा भी नहीं जाता, आंखे चकाचौन्ध हो गयी। अन्दर अन्न, जल, में-मिष्ठात्र के भण्डार भरे हुए देखा। अनुचरों ने पुनः दरवाजा बंद कर दिया ओर दौड़कर हिरण्यकश्यप के पास गए और उन्हें सम्पूर्ण स्थिति से अवगत करवाया।    

हिरण्यकश्यप की स्थिति कुछ ठीक नहीं हुई, वह कुछ कहने लगा- यह कैसे हो सकता है?, उन्हें जोने की सहायता किसने पंहुचाई? सच बताओ अन्यथा प्रहलाद के पास ही पंहुचा दूंगा। अनुचर कहने लगे महाराज क्षमा करें! यह तो सभी आपकी ही करामात है, यहाँ पर अन्य किसी का भी दोष नहीं है।

आपको मालूम है कि बैर-भाव किससे कर रहे हैं, कहां से भी पंहुच सकता है, वह तो सभी जीवों का पालण पोषण करता है। उस विष्णु के लिए असंभव ही क्या है? आपने ही सम्पूर्ण परिस्थितियाँ पैदा की है। स्वयं आपने ही यह कुआँ खोदा है, इसमे जल तो नहीं मिलेगा, किन्तु पड़ोगे अवश्य ही। इस प्रकार से आप प्राणों को खो बैठोगे, आपको बचाने वाला इस समय कोई नहीं है।

इस समय आपके सहायक न तो विष्णु है, न ही आपके कुटुम्ब या मित्र, आपके अतिरिक्त यहाँ सभी विष्णु के उपासक है। अब तो समय है, समय रहते हुए जो कुछ भी करना वह कर लीजिये, अन्यथा पछताना पड़ेगा।    

अनुचरों की न्याय-भक्ति युक्त वार्ता सुनकर हिरण्यकश्यप और भी क्रोधित हो गया। वह साँप की तरह फन किए हुए ही बैठा था और उन अनुचरों ने फन पर पाँव रख दिया। वह फुंफकार मारते हुए जहर उगलने लग। मानों वह स्वयं अग्नि की तरह सभी को जला देना वाला तो पूर्व ही था और उन अनुचरों ने जलती हुई अग्नि में घी डाल दिया। वह असुर भभक उठा और अपने ही अनुचरों पर क्रोध उतारते हुए काटते हुए कठोर वचन कहने लगा।    

आज ही मैं प्रहलाद व उनके शिष्यों को मार डालूंगा। आज इस खड़ग से इन्हें कौन बचायेगा स्वयं विष्णु आ जाये तो मैं उसको मारकर फिर प्रहलाद को मारूंगा तभी मेरी छाती ठण्डी होगी मैं अपने भाई-बहन की मौत का बदला ले सकेंगे, ऐसा कहता हुआ वह दैत्य हाथ में खड़ग लेकर प्रहलाद को मारने के लिए दौड़ पड़ा।

जैसे कहीं आग लगी हो, उसे बुझाने के लिए लोग दौड़ते हैं। वही कार्य हिरण्यकश्यप ने किया। एक छोटी लड़की को खोल दीजिये। मैं एक-एक को अपने ही हाथों से मौत के घाट उतारूँगा। दैत्य की आँखे क्रोध के मारे लाल लाल हो रही थी। सम्पूर्ण शरीर तन गया था। आपा खो बैठा था, मैं क्या करने जा रहा है, इस बात की उसे सुध नहीं थी।    

प्रहलाद ने अपने साथियों से कहा-तुम अब रूको, आगे मत बढ़ो। मुझे आगे जाने दो क्योंकि मेरे आगे बढ़ने से ही तुम्हारा भला होगा। अन्य संत-भक्त कहने लगे-पहले हम, पहले हम दैत्य की तलवार से कटेंगे और स्वर्ग प्रयाण करेंगे। प्रहलाद ने कहा हे बन्धुओं! अभी तुम्हारे मरने का समय नहीं आया है, जैसा मैं कहता हूँ तुम वैसा ही करो।    

प्रहलाद स्वयं सभी से आगे बढ़े। हिरण्यकश्यप ने देखा कि सर्वप्रथम मरने के लिए मेरा हो पुत्र आ रहा है। तनिक सोचा, पुत्र मोह जागा तो मार नहीं सका। प्रहलाद से कहा-तूं अभी पीछे हटजा, पहले तेरे शिष्यों को आने दे। पहले उन्हें मौत के घाट उतारूंगा, पीछे तुम्हें मारूंगा, आज किसी को भी जिन्दा नहीं छोडूंगा।    

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Sandeep Bishnoi

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