जांभोजी का जैसलमेर पधारना भाग 2

jambh bhakti logo

           जांभोजी का जैसलमेर पधारना भाग 2

जांभोजी का जैसलमेर पधारना भाग 2
जांभोजी का जैसलमेर पधारना भाग 2

रावल जी के चाकर ने जाकर खबर सुनाई कि जाम्भोजी वासणपी आ चुके है। उनके साथ बहुत से सेवक दल भी आया है। किन्तु उन्होने अपने आने की बात किसी को भी नहीं बताई है। इस वार्ता को सुनकर राजा सचेत हुआ।

कहने लगा – देवजी वासपणी आ गये है, रावल ने शीघ्र ही सामने चलने की तैयारी की। रावल जी ने कहा- चलो देवजी के सामने स्वागत हेतु चलेगे। हालांकि देवजी ने मना किया है किन्तु हमारा कर्तव्य बनता है। रावण ने जाम्भोजी के लिये भेंट हेतु चावल, मूंग, घृत, मौठाई आटा आदि लेकर सजाया और अपने योग्य उमराओ को साथ लेकर वासणपी के लिये प्रस्थान किया।

सामान आदि तो सवारियो पर रखा किन्तु रावण जी देव जी की आज्ञा को स्वीकार करते हुए जैसलमेर से पैदल ही चले। पांच कोश वासणपी गांव देवजी के पास अति शीघ्र ही पहुंच गये। रावण जी ने देवजी के चरणो में प्रणाम किया देवजी रावल जी से प्रेमभाव रखते थे।

 देवजी ने कहा – क्या बात है रावल ! दुखी क्यों हो रहे हो? तुम यहां तक सामने क्यो आये? इतने जीवो को दुखित क्यों किया? प्रतिज्ञा एवं वचन मेटे नहीं जाते पूर्ण किये जाते है। इस प्रकार से हाथ जोड़े खड़े हुए रावण को एक सोने की मूण मटका प्रदान किया। यह वही मूण थी जो सोनवी नगरी से लाये थे।

(:-यह भी पढ़े

                     जाम्भोजी का इतिहास

                                                             🙂

 जेतसी ने प्रार्थना करते हुए कहा – हे देव! आप तीनों लोको के मालिक, एक मुझ जैसे सामान्य मनुष्य के द्वारा निमन्त्रण देने पर आ गये। इससे बढ़कर और मेरा क्या सौभाग्य होगा। अन्य गुरु तो संसार में बहुत है किन्तु वे तो कुगुरु, झूठा,पाखंडी है। उनकी मैं क्या शरण लू। आप आ गये इससे बढकर और मेरा क्या सौभाग्य हो सकता है यदि मैं पांच कोश आपके सामने नहीं आऊ तो मानव कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।

रावल ने वीनती की हे देव! मैं तुच्छ भेंट ले आया हूं इसको आप स्वीकार करे। आपके साथ आये हुऐ संत संतोषी जीमेगे तो मैं निहाल हो जाऊगा। मेरा यज्ञ यही पूर्ण हो जायेगा। इसलिये आप भोजन बनाने का आदेश दे। सभी लोग प्रथम भोजन करे फिर आगे जैसलमेर चले। देवजी के आदेशानुसार वही सभी ने भोजन बनाकर प्रसाद रूप में ग्रहण किया।

 देवजी ने कहा – हे रावल! आप इन लोगो को भोजन करवावो मेरा भोजन तो सभी जीवों की तृप्ति हो जाना ही है मैं तो स्वयं संतोषी हूं तथा दूसरों का पालण पोषण कर्ता हूं। हे राजन लेना देना परोपकार करना यही जीव की भलाई का मार्ग है। वही तुम्हे करते रहना चाहिये।

रावल जेतसी के साथ एक ग्वाल चारण भी था, उन्होने विश्नोइयो की जमात देख कर कहा हे देवजी ! आप तथा आपकी बात तो समझ में आती है। किन्तु ये आपके साथ में कौन लोग है? किस कुल, जाति,परिवार, समाज के लोग है।

उस समय जाम्भोजी की आज्ञा से साथ में रहने वाले तेजोजी चारण जबाब देते हुए कहने लगे प्रथम ये लोग जाट कुल में पैदा हुऐ थे। अब इन्हें सतगुरु जाम्भोजी मिल गये है तो ये लोग सुगुरु सुज्ञानी विशनोई हो गये है। ये लोग ज्ञान तथा पाहल से पवित्र हो गये है पूर्व कुल पलट गया है। क्योंकि उतम की गति करने से पार उतर गये है, जिस प्रकार से लोहा लकड़ी की संगति करने से जल से पार उतर जाता है। ये लोग सतपन्थ के पथिक बन गये है।

तेरे नाम का दीवाना, तेरे द्वार पे आ गया है: भजन (Tere Naam Ka Diwana Tere Dwar Pe Aa Gaya Hai)

अजब है भोलेनाथ ये, दरबार तुम्हारा - भजन (Ajab Hai Bholenath Ye Darbar Tumhara)

Ashadha Sankashti Ganesh Chaturthi Vrat Katha (Ashadha Sankashti Ganesh Chaturthi Vrat Katha)

 अब इस पन्थ को छोड़कर कहीं नहीं जायेगे। अपवित्र से पवित्र हो चुके है। पुनः अपवित्रता में प्रवेश नहीं करेंगे। पहले तो ये लोग “जी” कहना ही नहीं जानते थे। गधे कूकर की तरह ही जो चाहे वही बोलते थे। इन्हें कोई नाम लेकर पुकारता था तो ये लोग” हो” कहकर ही बोलते थे। किन्तु अब’ जी जी “कहते है। पहले तो ये काच की तरह नकली थे किन्तु अब कंचन बन गये है।

काच तो सस्ता बिकता है किन्तु सोना महंगा बिकता है। ये लोग जाट ही थे जाटो की तरह ही रहते थे बिना गाली के बोलते भी नहीं थे किन्तु अब तो देवजी ने इनको बुद्धि प्रदान की है उसी बुद्धि से ही बोल प्रगट होता है इसलिये सुवचन बोल रहे है।

 ग्वाल चारण ने पूछा – इन लोगो ने सिर क्यों मुंडाया है? इनके कोई मर तो नहीं गया है? मरने पर तीजे दिन लोग सिर मुडाते है, मुझे इस बात का पता नहीं है इसलिये पूछता हूं?

तेजो जी चारण ने कहा- माथो-सिर तो तीन अगल ही है, जिसे मस्तिष्क कहते है, जहां पर कुदरती बाल लहीं ऊगते । जिसका जितना ललाट चौड़ा होगा उतना ही वह बुद्धिमान होगा। जहां बाल नहीं ऊगते वही तो सिर ही तो ज्ञान विद्या, ज्योति का केन्द्र है। बाकी सिर में बाल उगते है वहां ऐसा कुछ भी नहीं है जो विशेष हो सके।” जड़ जटा धारी, लंघे न पारी” जटाऐ बढा लेना तो जड़ता मूर्खता अज्ञानता का परिचायक है। ललाट की तरह ही सिर रखना बुद्धि ज्ञान का विकास करना है। इसलिये ये लोग गुरु मुखी हुई है। सिर मुंडाया है।

इन्होने अपने प्रियजन मार दिये है जो सभी को मारते है जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि| ये तो संसार में सभी के पीछे लगे है संसार इनके पीछे लगा है किन्तु इन भक्तो ने इन सेनाओ को मार कर सिर मुडांया है। हे ग्वाल! ऐसी व्यर्थ की बात मत बोल। सुन्दर शब्दो का उच्चारण करो।

आगे पुनः तेजोजी ने बतलाया – मोडा साधु को देखकर लोग आदेश करते है। हाथ में माला होती है तो राम राम कहा जाता है, मुसलमान को सलाम कहा जाता है सभी का अपना अपना अलग मार्ग है अपनी अपनी पहचान है। सभी अपने अपने मार्ग पर चलकर तो अवश्य ही पहुंच जायेगे बाह्मवेश भूषा से व्यक्ति की पहचान होती है जाम्भोजी ने इनकी अलग पहचान हेतु भी इनका सिर मुडांया है, इन्हें साधु बनाया है। क्योकि ये लोग मोडा है। इन्होने मोह को ढाह लिया है। सिर से नीचे गिरा दिया है।

 कौन नुगरा, कौन सुगरा, कौन साधु,कौन असाधु, कौन भक्त की पहचान वेश भूपा से होती है इसी को देखकर वन्दना की जाती है मूंडत सिर भक्त का वाना है इसलिये भक्त को प्रणाम ज्ञानी लोग करते है। मूंड | मुंडेया हुएं भक्त संतो की,भूत प्रेत उपासक लोग निन्दा करते है। वे लोग पाप पुण्य को नहीं जानते। निनानवे करोड़ राजा हुए है जो गुरु की शरण में जाकर सन्यास धारण किया है मूंड मूंडाये है। तो सिर मुडाना कोई बुरी बात नहीं है।

कितने लोग इस समय गुरु की बात को सुन कर के अपने जीवन को धन्य बनाया है। अपनी कुल परंपरा को छोड़ कर के सतपन्थ के अनुगामी बने है हे ग्वाल ! आप मुझे ही देखिये मैं भी तुम्हारा ही भाई चारण हूं, मैं भी अन्य लोगो की भांति पाप कर्म में डूबा हुआ था। मैं देवजी की शरण में आया,अपने कुल को पलट दिया, सतपन्थ का अनुगामी है। पापों को छोड़ कर असली चारण मैं अब हुआ हूँ। पहले चारण नहीं था मारण था, किन्तु मारण से चारण बना है। अब मैं किसी को नहीं चारता यही ज्ञान मुझे यहां प्राप्त हुआ है, यह सतगुरु का ही उपकार है।

 उसी समय रावल जेतसी ने कहा- चंदन अपनी संगति से अन्य का भी सुगन्धित कर लेता है |नीब भी अपनी संगति से अपने जैसा कड़वा अन्य को बना देता है। किन्तु यदि बांस चंदन के साथ उग जाये तो उसे चंदन भी अपने जैसा सुवासित नहीं कर सकता, क्योंकि बांस के गांठे होती है, सुगन्धी को वे गांठे प्रवेश नहीं होने देती।यही सतगुरू की पहचान है।

Picture of Sandeep Bishnoi

Sandeep Bishnoi

Leave a Comment