धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 6
अब तो अकेले धर्मराज ही आगे बढे, सभी भाईयों ने तथा धर्मपत्नी ने साथ छोड़ दिया किन्तु वह कुत्ता अब भी पीछे पीछे चल ही रहा है। धर्मराज अब तक थोड़ी दूर आगे बढे ही थे कि सामने स्वयं देवराज इन्द्र ही अपना रथ लेकर खड़े है। देवराज ने युधिष्ठिर का स्वागत किया। बहुत-बहुत धन्यवाद दिया यहां तक आने के लिए।
इन्द्र ने कहा-धर्मराज ! मैं स्वयं स्वर्गाधिपति देवराज इन्द्र आपके लिए रथ लेकर आया हूँ आप अति शीघ्र बोलिए और चलिए। मेरे साथ आपके बंधुजन है और आपकी प्रतीक्षा कर रहे है । तुम्हारे बंधुजन तो भौतिक शरीर को त्याग करके गये है परन्तु आप सशरीर चलिए वहां पर तुम्हारे बंधुजन तुम से मिलेंगे।
युधिष्ठिर ने कहा- अच्छी बात है। मैं अवश्य ही चलूंगा, किन्तु मेरे साथ तो मेरा भक्त कुत्ता है इसे भी साथ ले चलूंगा, मेरे साथ इसे भी चलने की आज्ञा प्रदान कीजिए। इन्द्र ने कहा- हे धर्मराज! केवल आप ही स्वर्ग में जाने के अधिकारी है, क्योंकि आप में ही केवल मेरी तरह ऐश्वर्य, पूर्णलक्ष्मी, सिद्धि की प्राप्ति हुई है। इस कुत्ते में नहीं है तो यह कैसे जा सकता है? इस कुत्ते को तो अपने रथ पर नहीं बैठाऊँगा आपके लिए ही मैं आया हूँ। इस कुत्ते को त्यागने में भी कोई दोष नहीं है।
युधिष्ठिर ने कहा- भगवन! आर्य पुरूष के धार्मिक निम्न श्रेणी का कार्य होना कठिन है। मुझे ऐसी श्री-लक्ष्मी आदि की प्राप्ति भले ही न हो जिसके लिए मेरी शरणागत आये हुए को परित्याग करना पड़े।
इन्द्र ने कहा- हे धर्मराज! कुत्ता रखने वालों के लिए स्वर्ग लोक में कोई स्थान नहीं है। उनके यज्ञ करने तथा कुवा-बावड़ी आदि बनाने का जो पुण्य होता है उस क्रोधवश नाम के राक्षस हर लेते है। इसीलिए सोच विचार करके कार्य करो। इस कुत्ते को छोड़ दो, ऐसा करने में कोई निर्दयता नहीं है। युधिष्ठिर ने कहा- ऐसा मेरा सदा का ही व्रत है कि जो असहाय हो, भक्त हो, जो डरा हुआ हो, मेरा दूसरा कोई सहारा नहीं है ऐसा कहते हुए आर्त भाव से शरण में आया हो, अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो, अपने प्राण बचाना चाहता हो, ऐसे पुरूष को मैं कभी नहीं त्याग सकता।
इन्द्र ने कहा- हे वीरवर! मनुष्य जो कुछ दान, स्वाध्याय अथवा हवन आदि पुण्य कर्म करता है, उस पर यदि कुत्ते की दृष्टि पड़ जाए तो उसके फल को क्रोधवश नामके राक्षस हर ले जाते है, इसीलिए इस कुत्ते का त्याग कर दो। इसी से ही तुम्हें देव लोक की प्राप्ति होगी। तुमने भाइयों तथा प्रिय पत्नी का परित्याग करके अपने पुण्य कर्मों के फल स्वरूप देव लोक को प्राप्त किया है, फिर इस कुत्ते को क्यों नहीं छोड़ देते?सभी कुछ छोड़ कर भी इस कुत्ते के मोह में फंस गए।
युधिष्ठिर ने कहा- हे भगवन् ! इस संसार में जो प्राण त्याग कर चुका है, उसके साथ मेल-मिलाप कैसा? वे मेरे भाई तो शरीर छोड़ गए है जब तक जीवित थे तब तक मैंने अपनी धर्म पत्नी व भाईयों का साथ नहीं छोड़ा था। मरे हुए को जीवित करना मेरे वश की बात नहीं है। किन्तु हे इन्द्र! शरण में आये हुए
को भय देना, स्त्री का वध करना, ऋषि मुनि भक्तों से धन लूटना, और मित्रों के साथ द्रोह करना ये चार अधर्म और भक्त का त्याग दूसरी ओर हो तो मेरी समझ में यह अकेला ही उन चारों के बराबर है।
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इस प्रकार से इन्द्र ने युधिष्ठिर को अनेक युक्तियों द्वारा समझाने का प्रयत्न किया किन्तु युधिष्ठिर अपने धर्म से विचलित नहीं हुए। स्वयं ही धर्मराज ही कुत्ते के रूप में थे, जो वहीं प्रगट हो गए और कुत्ता लोप हो गया। धर्मराज ने युधिष्ठिर का धर्मयुक्त आचरण देखकर बड़े ही प्रसन्न हुए और कहने लगे- हे राजेन्द्र तुमने अपनी सदाचार बुद्धि एवं सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति होने वाली दया के कारण अपने पिता का नाम उज्ज्वल किया है।
बेटा! एक बार पहले मैनें द्वैतवन में भी परीक्षा ली थी। जबकि तुम्हारे सभी भाई पानी लाने के लिए गए थे तथा वहीं मर गये थे। उस समय तुमने कुन्ती एवं माद्री दोनों माताओं में समानता की इच्छा रखकर अपने सगे भाई भीम और अर्जुन को छोड़कर केवल नकुल को जीवित रखना चाहा था।
इस समय भी कुत्ता मेरा भक्त है ऐसा सोचकर तुमने देवराज इन्द्र के रथ का परित्याग कर दिया। अतः स्वर्गलोक में तुम्हारी समता करने वाला कोई नहीं है। इसलिए तुम्हें अपने इसी शरीर से अक्षय लोक है। की प्राप्ति हु तुम परम उत्तम गति को पा गये हो। ऐसा कहते हुए धर्म, इन्द्र, मरूदगण,अश्विनीकुमार, देवता एवं ऋषियों ने युधिष्ठिर को रथ में बैठाया और वे सभी अपने-अपने विमानों पर आरूढ़ होकर स्वर्गलोक को चले गये।
इन्द्र के रथ पर बैठे हुए राजा युधिष्ठिर अपने तेज से पृथ्वी एवं आकाश को देदीप्यमान करते हुए बड़ी तेजी से ऊपर की ओर जाने लगे। उस समय सकल लोकों का वृतान्त जानने वाले कुशल वक्ता देवर्षि नारदजी ने देव मंडल में उपस्थित होकर उच्च स्वर में कहा-जितने राजर्षि स्वर्ग में आये हैं, वे सभी यहाँ उपस्थित है, किन्तु कुरुराज युधिष्ठिर अपने सुयश से सभी की कीर्ति को आच्छादित करके विराजमान हो रहे हैं। अपने यश, तेज और सदाचार रूप सम्पत्ति से तीनो लोकों को आवृत करके अपने भौतिक शरीर से स्वर्ग लोक में आने का सौभाग्य पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के सिवा और किसी राजा को भी प्राप्त हुआ है, ऐसा मैनें कभी नहीं सुना है।
हे युधिष्ठिर! पृथ्वी पर रहते हुए तुमने नक्षत्र एवं ताराओं के रूप में जितने तेज देखे हैं वे सभी ही ये देवताओं के हजारों लोक है, इनकी ओर देखो। नारदजी की बात को श्रवण करके युधिष्ठिर ने कहा- मेरे भाईयों को भला या बुरा जो भी स्थान प्राप्त हुआ है, उसी को मैं भी पाना चाहता हूँ। इसके सिवाय दूसरे लोकों में जाने की मेरी इच्छा नहीं है।
इनके ऐसा कहने पर देवराज इन्द्र ने कहा- महाराज ! तुम अपने शुभ कर्मों द्वारा प्राप्त इस स्वर्गलोक में निवास करो। मनुष्य लोक के मोहपाश में बंधे हुए अब तक क्यों खींचे चले आ रहे हो? तुम्हें जो उत्तम लोक की प्राप्ति हुई है यह दूसरे मनुष्य के लिए दुर्लभ है। तुम्हारे भाईयों को ऐसा स्थान प्राप्त नहीं है। अब तक मनुष्य लोक की भावना तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ रही है। यह स्वर्ग लोक है, इन स्वर्गवासी देव ऋषियों और सिद्धों की ओर तो दृष्टि डालो।
देवराज इन्द्र की इस प्रकार की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार से कहा- अपने भाईयों एवं सत्वगुण सम्पन्ना देवी द्रौपदी के बिना मैं एक क्षण भी रहना नहीं चाहता, वह चाहे स्वर्ग हो या अन्य लोक? मेरे भाई एवं सभी मेरे बन्धु मेरे लिए युद्ध भूमि में हंसते हुए प्राणों का त्याग किया है। वे चाहे पक्ष के हो चाहे विपक्ष के हो। इस समय तो मेरा शत्रु मुझे कोई नहीं दिखता। जिन्होनें मेरे लिए सर्वस्व अर्पण
कर दिया है उन्हें मैं इस समय कैसे भूल सकता हूँ? सुख या दुःख, नरक या स्वर्ग हम सभी मिलकर ही भोंगेगे मैं अकेला सुख भोगने की तो कल्पना ही नहीं कर सकता।
धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वर्ग में जाने के बाद देखा कि दुर्योधन स्वर्गीय शोभा से सम्पन्न हो देवता एवं साध्यगणों के साथ दिव्य सिंहासन पर बैठकर सूर्य के समान देदीप्यमान हो रहा है। उसका ऐसा ऐश्वर्य देखकर युधिष्ठिर सहसा वापिस लौट पड़ा और कहने लगा हे देवताओं! जिसके कारण हमने अपने | मित्र एंव बन्धुओं का युद्धभूमि में संहार कर डाला था तथा जिसकी प्रेरणा से निरंतर धर्म का आचरण करने वाली हमारी धर्मपत्नी द्रौपदी को भरी सभा में गुरुजनों के सामने घसीटा गया ऐसे दुर्योधन के साथमें मैं लोक में नहीं रहना चाहिए। ऐसी युधिष्ठिर की विरोधयुक्त बातें सुनकर नारदजी हंस पड़े और बोले-
हे धर्मराज! स्वर्ग में आने पर मृत्यु लोक का बैर विरोध नहीं होता। अत: तुम्हें दुर्योधन के सम्बन्ध में ऐसी बात कदापि नहीं कहनी चाहिये। स्वर्ग लोक में जितने श्रेष्ठ राजा रहते हैं तथा देवता भी राजा दुर्योधन का विशेष सम्मान करते हैं।
यह सत्य है उसने तुम्हें सदा ही कष्ट पंहुचाया है फिर भी इस वीर ने युद्धभूमि में लड़ते हुए प्राणों का परित्याग किया है। अत: इसके द्वारा आप लोगों को जो भी क्लेश प्राप्त हुआ है उसे आप भूल जाओ और इनके साथ न्यायपूर्वक मिलो। ध्यान रखो यह स्वर्ग लोक है, यहाँ आने पर पहले का वैर नहीं रहता।
नारदजी के ऐसा कहने पर राजा युधिष्ठिर ने कहा- हे ब्रह्मन् ! जो महान व्रतधारी,महात्मा,सत्यप्रतिज्ञ,विश्व विख्यात वीर और सत्यवादी थे उन मेरे भाईयों को कौन से लोक प्राप्त हुए हैं, उन्हें मैं देखना चाहता हूँ? सत्य पर दृढ़ रहने वाले कुन्ती पुत्र महात्मा कर्ण को,धृष्टद्युम्न को,सात्यकि को तथा अन्य वीरों को मुझे देखने की इच्छा है। इनके अतिरिक्त और भी अन्य राजा क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध में मारे गये हैं, वे सभी कहाँ है? उनका तो यहाँ पर दर्शन भी नहीं हो रहा है।
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इस प्रकार से युधिष्ठिर ने देवताओं से कहा- हे देवगणों! क्या ? ये सभी मेरे बन्धुगण इसी लोक को प्राप्त हुए हैं, यदि वे यहीं पर ही है तो मैं भी यहीं रहूंगा अन्यथा एक क्षण भी मुझे यहाँ रहने का अधिकार नहीं है और यदि वे यहाँ पर नहीं आये तो उनके बिना मैं यहाँ कैसे रह सकता हूँ? क्योंकि युद्ध के पश्चात
जब मैं अपने मृत सम्बन्धियों को जलांजलि दे रहा था उसी समय मेरी माता कुन्ती ने कहा कि-बेटा! कर्ण|को भी जलांजलि दे देना।
माता की यह बात सुनकर जब मुझे यह पता चला कि कर्ण भी मेरा भाई था, तब से मुझे उनके लिए बहुत दुःख होता है। यह सोच कर तो मैं और भी पश्चाताप करता हूँ कि महामना कर्ण के दोनों चरणों को माता कुन्ती के चरणों के समान देखकर भी मैं उनका अनुगामी क्यों नहीं हो गया था यदि कर्ण हमारे साथ होते तो हम इन्द्र को भी युद्ध में परास्त कर देते। वे सूर्यनन्दन कर्ण इस समय जहाँ कहीं भी हो, मैं उनका दर्शन करना चाहता हूँ।
अपने प्राणों से भी प्यारे भीमसेन, अर्जुन,नकुल सहदेव तथा धर्मपरायणा द्रौपदी को देखना चाहता हूँ। यहाँ रहने में मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है। यह मैं आप लोगों को सच्ची बात बता रहा हूँ। हमारे जो वृद्ध गुरुजन थे भीष्म,द्रोण,मामा शल्य, ये सभी तो समर्थ वीर क्षत्रियधर्म के मेरूदण्ड थे। उनके बारे में भी जानना चाहता हूँ। वे हमारे पूजनीय वृद्धजन न जाने कहाँ होंगे? भाईयों से अलग रहकर मुझे स्वर्ग से भी क्या लाभ? जहाँ मेरे भाई है वहीं स्वर्ग है मैं इस लोक को स्वर्ग नहीं मानता।
देवताओं ने कहा- हे राजन्! यदि उन लोगों में तुम्हारी श्रद्धा है तो चलो विलम्ब न करो, हम लोग देवराज इन्द्र की आज्ञा से हर तरह से तुम्हारा प्रिय करना चाहते हैं। ऐसा कहते देवताओं ने अपने दूतों को आज्ञा दी कि इन महाराज युधिष्ठिर को अपने सगे सम्बन्धियों के दर्शन कराओ। तत्पश्चात युधिष्ठिर उन दूतों के साथ साथ आगे बढ़े जहाँ उनके भाई भीमसेन आदि थे, आगे-आगे देवदूत चल रहे थे, पीछे-पीछे युधिष्ठिर। वह देवदूत उनको ऐसे दुर्गन्धयुक्त मार्ग में ले गया, जहाँ से पापी लोग ही उधर को जाते हैं।
वहाँ सभी ओर घोर अंधकार छाया हुआ था। चारों ओर से दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध आ रही थी। इधर-उधर सड़े हुए मुर्दे दिखाई दे रहे थे। जहाँ-तहाँ बाल और हड्डियां पड़ी हुई थी, लोहे सदृश चोंच वाले गिद्ध मण्डरा रहे थे। सुई के समान चुभते हुए मुख वाले पर्वताकार प्रेत सभी ओर घूम रहे थे। उन प्रेतों के शरीर से रूधिर बह रहा था। किसी के बाहु, ऊरू,पेट और हाथ पैर कट गये थे। बड़ा ही भयानक दृश्य वहाँ का था। धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर बहुत चिन्तित होकर उस मार्ग के बीच में से होकर निकले।
उन्होनें देखा- वहां खोलते पानी से भरी हुई एक नदी बहती है जिसके पार जाना बहुत ही कठिन है। दूसरी ओर तीखे पतों से परिपूर्ण असिपत्र नामक वन है। कहीं गरम-गरम बालू बिछी है। कहीं तपाये हुए लोहे की बड़ी-बड़ी चट्टाने हैं। सब और लोहे के घड़ों में तेल उबल रहा है। जहां तहां पैने कांटो से भरे हुए सेमल वृक्ष हैं। जिनको हाथ से छूना भी कठिन है।
इन सभी के अतिरिक्त पापियों को यहाँ पर अनेक प्रकार की यातनाएं दी जाती है। उन पर भी युधिष्ठिर की दृष्टि पड़ी, वहां की दुर्गन्धी से तंग आकर युधिष्ठिर ने देवताओं से कहा हे देव! ऐसे मार्ग पर मेरे को अभी कितनी दूर ओर चलना है? तथा मेरे भ्राता कहाँ है? धर्मराज की यह बात सुनकर देवदूत वापिस लौट पड़ा और बोला बस? यहीं तक आपको आना था महाराज ! देवताओं ने मुझ से कहा था कि जब युधिष्ठिर थक जाये तो उन्हें वापिस लौटा लाना। अतः अब मैं आपको वापिस ले चलता हूँ क्योंकि अब आपको आगे चलना ही नहीं है। लगता है आप थक गये हैं तो मेरे साथ आईये।
युधिष्ठिर उस बदबू से विकल हो रहे थे इसलिए घबराकर वापिस लौटने का ही निश्चय किया। वे ज्यों ही उस स्थान से लौटने लगे त्यों ही उनके कानों में चारों से दुःखी जीवों की यह दयनीय पुकार सुनाई पड़ी।
हे धर्म नन्दन ! आप हम लोगों पर कृपा करके थोड़ी देर यहीं ठहर जाईये। आपके आते ही परम पवित्र हवा चलने लगी है, इससे हमें बड़ा सुख मिला है। हे कुन्तीनन्दन ! आज बहुत दिनों के बाद आपका दर्शन पाकर बड़ा आनन्द मिल रहा है। अतः क्षणभर और ठहर जाईये। आपके रहने से यहां की यातना हमें कष्ट नहीं पंहुचाती।
इस प्रकार से वहां कष्ट पाने वाले दुःखी जीवों के भांति-भांति के दीन वचनों को सुनकर युधिष्ठिर को बड़ी दया आयी। उनके मुंह से सहसा ओह निकल पड़ा। इन बेचारों को बड़ा कष्ट है। यों कहकर के वे वहीं ठहर गये। फिर पूर्ववत दुःखी जीवों का आर्तनाद सुनाई देने लगा। किन्तु वे पहचान नहीं सके कि ये किसके वचन है।
जब किसी तरह उनका परिचय समझ में नहीं आया तो युधिष्ठिर ने उन दुःखी जीवों को सम्बोधित करके पूछा- आप लोग कौन हैं? और यहाँ किसलिए रहते हैं ? उनके इस प्रकार पूछने पर चारों ओर से आवाज आने लगी- मैं कर्ण हूँ, मैं भीमसेन हूँ, मैं अर्जुन हूँ, मैं नकुल हूँ, मैं सहदेव हूँ, मैं द्रौपदी और हम लोग द्रौपदी के पुत्र, इस प्रकार अपने-अपने नाम बताकर सब लोग विलाप करने लगे।
यह सुनकर राजा युधिष्ठिर विचार करने लगे……. दैव का यह कैसा विधान है? मेरे महात्मा भाई भीमसेन आदि कर्ण, द्रोपदी के पुत्र तथा स्वयं द्रौपदी ने भी ऐसा कौनसा पाप किया था जिसके कारण इन्हे यहाँ दुर्न्धपूर्ण भयानक स्थान में रहना पड़ रहा है। ये सभी पुण्यात्मा थे, जहाँ तक मैं जानता हूँ, इन्होनें कोई पाप नहीं | किया था। फिर किस कर्म का फल है जो ये लोग नरक में पड़े हुए हैं?
मेरे भाई सम्पूर्ण धर्म के ज्ञाता, शूरवीर, सत्यवादी तथा शास्त्र के अनुकूल चलने वाले थे उन्होंनें क्षत्रिय धर्म पर रहकर बड़े-बड़े यज्ञ किए और बहुत सी दक्षिणाएं दी है, फिर भी ऐसी दुर्गति क्यों हुई है? मैं इस समय सोता हूँ या जागता हूँ? मुझे चेता है या नहीं? कहीं ये मेरे चित्त का विकार और भ्रम तो नहीं
हैं?
इस प्रकार से सोच विचार करते हुए राजा युधिष्ठिर ने देवदूत से कहा- तुम जिसके दूत हो, उसके | पास लौट जाओ। मैं वहाँ नहीं चलूंगा। अपने मालिकों से जाकर कहना- युधिष्ठिर वहाँ रहेगे, मेरे यहां रहने से मेरे भाई बन्धुओं को सुख मिलता है। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर देवदूत देवराज इन्द्र के पास चला गया। युधिष्ठिर ने जो कुछ कहा वहीं जाकर इन्द्र से निवेदन कर दिया।
धर्मराज युधिष्ठिर कथा भाग 7