जाम्भोजी का भ्रमण भाग 2
इब्राहिम ने कहा- यदि अंदर बंद नहीं कर सकते तो इस फकीर की हत्या कर दो। ऐसा दंगा मचाओ और उसमें नार डालो। ऐसो राजदरबार की बात सुन कर श्री देवजो को काजी खाने, हत्या गृह में ले आये। वहा पर क्या देखते है कि एक दो नहीं ये तो हजारों की संख्या में खड़े है। काजी कहने लगा इतने लोगों की एक साथ हत्या कैसे कर सकते है?
हे बादशाह! आपने तो इन फकीरों से सम्पूर्ण महल ही भर दिया है। हम लोग तो इनको देख कर डर रहे है। न जाने ये लोग क्या कर देगे, उनकी वार्ता सुन कर इब्राहिम स्वयं देखने आया। पौछे से एक सेवक ने आकर बादशाह को खबर सुनाई कि तुम्हारे महल के जनाने वास में वह फकीर खड़ा मैंने देखा
है स्वयं बादशाह ने हाथ में तलवार ली और रंग चौक में श्री देवजी के दर्शन किये। क्रोध में भरकर बादशाह कहने लगा
तू पड़दे में कैसे घूमता है? यहां पर पुरुष प्रवेश वर्जित है, ऐसे कहते हुए खड़ग की मारने लगा किन्तु श्री देव के शरीर में चोट नहीं लगी। बादशाह होश गुम होकर धरती पर गिर पड़ा। जाम्भोजी वैसे ही खड़े देखते रहे। हिम्मत करके दुबारा खड़ा हुआ और दुबारा वारा करने लगा किन्तु वह भी खाली ही| गयी। अब तो खड़ा फैक कर गफी डालने लगा किन्तु आकाश में हाथ फैलाया हुए बादशाह खाली खड़ा रहा। बादशाह डर गया था अब पछताने लगा- हाथ जोड़ कर क्षमा याचना करने लगा।
श्री देवजी ने कहा सिकंदर तुम्हारा पिता तो मेरा शिष्य था तूं उनका बेटा होकर कुपात्र कैसे हो गया? अब तुम्हारा राज्य ज्यादा दिन नहीं चलेगा। यह तुम्हारा लोदी वंश का राज्य चला जायेगा और यहां पर मुगलवंश का राज्य शीघ्र ही आयेगा तुमने अपने पिता की चलाई हुई मान मर्यादा, हक की कमाई का नियम तोड़ दिया है। अनीता का राज्य अधिक टिकाऊ नहीं होता। ऐसा कहते हुए श्रीदेवजी वहां से अदृश्य हो गये और मुकाम साथियों के पास चले आये।
उसी समय ही प्रात:कालीन वेला में आगे यमुना पार जाने के लिए जमात तैयार खड़ी थी। श्रीदेवजी जमात सहित आगे बढ़े। यमुना को पार किया। शाम के समय में इब्राहिम वहां पर आकर देखा तो जमात तो आगे जा चुकी थी। वह समय तो व्यतीत हो चुका था। वापिस लौटकर आने वाला नहीं था। बीच में पांच मंजिलों पर विश्राम करके श्री जम्भेश्वरजी अपनी संत मण्डली सहित सरधना पहुचे। वहां पर दो दिन तक विश्राम निवास किया। उस समय सभी आसपास के गांवों के लोग मिलने हेतु आये।
सरधना से श्रीदेवी फलावदा पहुंचे। वहां पर रथ को रोका तब वहां के विश्नोई लोग बड़े हो प्रेमभा से फूल, मिष्ठान, घृत आदि लेकर आये। सभी ने अपनी ब्रद्धानुसार भेटे चढ़ाई। तन मन धन से हरि की सेवा की। जहां जहां पर भी जाते चरण कमल टिकते थे वहां पर विश्नोई लोग निवास करने लगे थे क्योंकि वह भूमि पवित्र रहने योग्य हो गयी थी। यहीँ सतगुरु की सामध्य है जहां पर भी धर्म विस्तार होने की सम्भावना थी वहीँ पर श्रीदेवी पंहुचे। जो भी उनके मार्ग में गाँव-नगर आये वहीं विश्नोई पंथ में सम्मिलित होने गये।
वहां से आगे चल पड़े, विश्नोई को जमात श्रीदेवी के साथ नगीना पहुंचे। नगीने में श्री गुरुदेव ने जहां पर आसन लगाया , वहीं पर साथरी की स्थापना हुई। सतगुरु के शिष्य कुलचन्द, धनों, बीए, चलोजी आदि बड़े उत्साह से अपनी अपनी श्रद्धा समर्पित करने हेतु श्री देवजी के पास बड़े ही प्रेम से पहुचे जो कुछ लाये थे वह भाव रूप में श्रीदेवी के चरणों में रखकर स्तुति करने लगे।
कूलचंद जी कहने लगे- हे गुरुदेव | में तो आपका ही हूं, आप मेरे ही हैं, अन्य तो सभी कुछ झूठा ही है।
आप की जयजयकार हो, आप दयालु कृपालु हो तथा आपका कोई आदि अन्त नहीं है। आपने कृपा करे हमें दर्शन दिया है, मुझे निहाल कर दिया है। हे जगत कर्ता। आप हमारे दुःखों का निवारण कौजिये । इसी हेतु तो आपने अवतार ही लिया है। हे जगत के स्वामी आप तो अन्तर्यामी है, हम क्या कहें? यदि आप प्रसन्न हो जावे तो हमारे जन्ममरण के फंदे कट जाये।
हे प्रभु। हमारा धन्य भाग जो आपने हमारे यहां पर चरण रखें हैं। आपने यह कृपा की है जो मेरे घर पर दर्शन देने के लिए आ गये हैं। हे अविक्त अनमाय स्वामी ! आपका नाम लेने से 84 लाख योनियों में भटकना मिट जाता है। आप तो सतलोक के स्वामी हो। हे निष्कामो। आपने हमारे पर बड़ी कृपा को है। अपने जन को अपनी शरण में रखी तथा कुछ सेवा का अवसर प्रदान करो। हे देव यह मन बड़ा हो चंचल है इसे स्थिर कोजिये। यह कार्य तो आपको कृपा से ही हो सकेगा। इस मन ने तो शिव ब्रमादिक सभी को नचाया है।
कुलचंदने इस प्रकार से स्तुति को। श्री जाम्भा हरि ने प्रसन्नता से कुलचंद के सिर पर अपना हस्त कमल धरा और कहा- क्या मांगते हो कुलचंद? हे देव! जब आपका हस्त कमल मेरे सिर पर आ गया तो मुझे अन्य सांसारिक वस्तु से कुछ भी प्रयोजन नहीं है। आपको भक्ति सदेव बनी रहे । कुलचंद जो की स्तुति पूर्ण हो जाने पर धन्ना बिछू ने भी अपनी अपनी स्तुति पृथक पृथक रूप से की। उसी गांव में रहने वाले सुरगुण भंवरा भी स्तुति करने लगे।
ये तो सभी लोग पूर्व समय में कई बार सम्भराथल की यात्रा कर चुके थे। इस समय तो घर में आयो हुई गंगा को कैसे हाथ से जाने देते। इस भक्त मण्डली में चेलोजी भोले-भाले शिरोमणि भक्त थे। वे पास जाकर स्तुति करने में संकोच करते रहे। कहां तो मैं अपवित्र कहां विष्णु परमात्मा ! मैं भला क्या स्तुति करू कैसे कहू और क्या कहा, कुछ समझ में नहीं आता। श्रीदेवजी ने चेलेजो का नाम लेकर अपने पास बुलाया और अपने मनोभाव प्रगट करने को कहा चेलोजी कहने लगे- हे देव मैं तो आपके चरणों का दास है,
दास कैसे अपने स्वामी की मूर्ति का बखान कर सकता है, मैं तो आपकी महिमा जानता हूँ बखान करना तो मेरे वश की बात नहीं है अपनी वाणी में आपकी विराट महिमा को कैसे बांध सकता हं, । रात-दिन आपके ही गुणों का बखान करता हूं, मेरे भाई-बन्धु, माता-पिता तो सभी कुछ आप ही हो। आपके बिना तो मेरा जीवन व्यर्थ है। आप सदा ही मेरे हृदय में निवास करो। अपना कमल सदृश हाथमेरे सिर पर रखा। अपने दास को साथ ही लीजिये। मेरी कुमति का हरण करो और शुद्ध ज्ञान प्रदान कौजिये।
आप तो सत्यलोक के स्वामी है। इस मृत्युलोक से सदा ही उदास रहते हैं। यहां मृत्युलोक में तो प्रहलाद भक्त के वचनों का पालन करने हेतु आये हैं इकीस करोड़ तो आपने पूर्व तोन युगों में पार पंहुंचा दिया। अब अवशिष्ट बारह करोड़ उद्धार करने हेतु यहां पर आये हैं उन बारह करोड जोवों में हम भी हैं।
इसलिए हमारा तो उद्धार अवश्य हो होगा है देव आप संतों के प्रतिपालक हैं। आपने इससे पूर्व भी । ूव, प्रहलाद,नारद,कयाधु आदि की गति की हैं अब आप मेरी गति कीजिये।
हे भगवन! मैं आपकी शरण ग्रहण कर चुका हूँ।आपके सिवा मेरा इस भवसागर में कोई नहीं है। पतितों को पार उतारने में आपकी कोई बराबरी नहीं है। यदि दोष होगा तो किसी साधक में ही होगा आप तो निर्दोष समदृष्टि भगवान हैं। अब आप ही जाने हम क्या जाने? आपके दर्शनमात्र से ही करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। सूखी लकड़ी के साथ हरी लकड़ी भी जल जाती है। काठ के संग लोहा भी पार लग जाता है। मैं तो आपका सेवक आपके शिष्यों के साथ यूं ही पार उतर जाऊंगा। मुझे तो चिंता कदापि नहीं करनी चाहिये। ऐसा कहते हुए भक्त चेलोजी श्री देवजी के चरणों में गिर पड़ा।
श्रीदेवजी ने चेलेजी के सिर पर अपने दोनों हाथ रखे। उसे उठाकर गले लगाया चेलोजी से बहुत ही प्यार किया। उसके दोनों हाथ चूमे। जिस प्रकार से मां अपने लाडले भोले-भाले बच्चे को प्यार करती है। यही दशा श्रीदेवी की थी। सत्य है ईश्वर तो इसी प्रकार से जीवों से प्यार करते हैं किन्तु ये बेटे लोग ही अपना अहंकार नहीं त्यागते, कुपात्र हो चुके हैं।
उसी समय वहां पर उपस्थित किसी बन्धु ने श्रीदेवी को अपना हाथ दिखाया और कहा- महाराज ये देखो मेरे हाथ कितने सुन्दर सौम्य है। श्रीदेवी कहा- इन कोमल हाथों में तो कौलें ठोकी जायेगी। हाथ पैर तो वही सफल है जिससे परोपकार कार्य सम्पन्न होवें। तैनें इन हाथों से कुछ भी नहीं किया तो यम के द्वार पर खड़ा होना पड़ेगा।
अनेक प्रकार से श्रीदेवी की स्तुति की तथा अपनी इच्छानुसार वरदान भी मांगा। देवजी नगीने की साथरी पर विराजमान थे एक इमली के पेड़ के नीचे सभी को जल-पाहल पिला रहे थे आसपास के गांवों के लोग आते रहे और पीते रहे, वह अमृत पाहल तो अमर ही था। वह कभी समास होने वाला नहीं था। जीवनयुक्ति सिखाने वाला जल था। जिसने भी पिया वह अमर हुआ। अपनी पंचभौतिक काया को त्याग करके भी जीवात्मा के रूप से अमर रहने का ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
चित्रगुप्त चालीसा (Chitragupt Chalisa)
करवा चौथ व्रत कथा: पतिव्रता करवा धोबिन की कथा! (Karwa Chauth Vrat Katha 3)
माँ काली चालीसा - अरि मद मान मिटावन हारी (Kali Chalisa - Arimad Man Mitawan Hari)
उस समय श्रीदेवजी की शोभा निराली ही थी सभी के मध्य में विराजमान होते थे तो उनको मुख न्योति चारों तरफ बराबर दिखती थी। शायद किसी ने उनकी पीठ देखी हो, मैं तो कहता हूं-हे वोल्ह। मैंने कभी श्रीदेवी की पीठ नहीं देखी, जब भी देखा तो सन्मुख हो देखा। मैं तुम से सत्य कहता हूँ पीठ
दिखाना तो कायरता की बात है। उनके नयन कमल दल सदृश शोभायमान थे। करोड़ों कामदेवों के सदृश उनके शरीर की कांति शोभायमान हो रही थी।
भगवां विश्व शरीर पर अग्नि सदृश सभी पापों के निवृति की सूचना दे रहा था। सिर पर टोपी शोभायमान हो रही थी। जब वो मधुर वाणी से बोलते थे तो उपस्थित जन समूह मंत्र मुग्ध हो जाता था। उनकी एक एक बात को पी जाते थे। एक एक शब्द बड़ा हो अमूल्य था। हे वोल्ह! मैंने अब तक ये जो एक सौ बीस शब्द कण्ठस्थ रखे है। वे ही शब्द मैंने तुम्हें सुना दिया है। इन्हें अपने अंदर से जाने मत देना।दूसरों को सुनाते रहना, इससे तुम्हारी विद्या अनंत फलवती होगी।
इस प्रकार से नगीने में श्री देवजी चार महीने निवास किया था नाथोजी कहते है कि हमने तो यही सभी कुछ अपनी आंखो से देखा है। वहां के लोगों का प्रेम धारण किया है, मैं वहां की बात स्मरण करता तो अभी भी रोमांचित हो जाता हूं। उस विशाल इमली के पेड़ की मुझे बार बार याद आती है। उसके नीचे बैठे हुए श्री देवजी मुझे इस समय भी स्पष्ट दीख रहे है।
आप भी देखिए, अवश्य हो दिखेंगे,वे कहाँ चले नहीं गये हैं अब भी हदय में बैठाये और अन्तरदृष्टि से देखिए। अवश्य ही दर्शन होंगे। वे लोग भी धन्य है जिन्होंने साक्षात्कार एवं शब्द प्रवण किया है उनका वह निष्कंटक प्रेम भी धन्य है ऐसा प्रेम सभी का बन जाये तो कार्य बन सकता है विना प्रेम तो सूखी सरिता में नाव चलाने के समान सभी कुछ परिश्रम व्यर्थ ही है।
नगीने से प्रभु जी अपनी भक्त मंडली सहित रवाना हुए चेलोजी कुलचंद जी आदि भी श्री भगवान के साथ ही बिजनौर मोहम्मदपुर गांव में अधिकारी भक्तों को ज्ञान ध्यान, धन, संपति, विद्या, युक्ति देकर गंगा के किनारे दारानगर गज में तीन दिनों तक नियास किया। वहां गंगा के किनारे श्री देवी के चरनचिन्ह स्थापित हुए। वहां पर भी श्री देवजी की साथरी की स्थापना हुई।
साथ में भक्त साथियों ने गंगा ख्रान कर के पुण्य अर्जित किया। सभी को पवित्र करने वाली गंगा भी आज विष्णु के चरणों को स्पर्श करके धन्य हुई। उन्हों के चरणों से गंगा निकली थी। ब्रह्मा जी के कमण्डलु में आई थी और अंत में कुछ समय तक शिव की जटाओं में रमण करती हुई गंगा ने पृथ्वी पर साठ हजार सागर के पुत्रों का उद्धार किया।
बहुत दिनों की प्रतीक्षा बाद आज गंगा को पुनः श्री चरण स्पर्श करने का अवसर मिला था। दारानगर को इसीलिए ही तो विशेष तीर्थ बनाया नगीने निवासी श्री देवजी के शिष्य धनों बिछू नगीन से नित्य प्रति गंगा स्नान करने के लिए यहां आया करते थे क्योंकि वो देवजी के साथ थे इस महत्व को जानते थे।
श्री देव जी ने कहा- धनाजी! आप नित्य प्रति स्नान करने के लिये यहां पर आते है? यह तुम्हारा नियम तो अच्छा है किन्तु काफी दूर पड़ता है। आने जाने में कष्ट होता है। इसीलिए आपके घर के पास जो कुआँ है उसी पर ही स्नान कर लिया करो। वह भी गंगा जल ही है। धनो बोइ कहने लगे- यह हम कैसे मान ले कि वहां हमारे कुएं का जल भी गंगा जल ही है?
देवजी ने कहा- आज तुम ऐसा करो यहां गंगा में अपनी धोती छोड़ जाओ और कल सुबह अपने कुएं पर स्नान करने के लिए पानी की सिंचाई करना तो तुम देखना कि यह तुम्हारी धोती वही पर तुम्हारे कुर्वे में ही मिलेगी। पानी के साथ तुम्हारा वस्त्र तुम्हारे पास ही पहुंच जायेगा। जैसी आपकी आज्ञा वैसा ही करेंगे।
धना- बीछ ने अपनी धोती गंगा में छोड़ दी और दूसरे दिन अपने कुंवे में प्राप्त कर लिया धनो बिछा के घर के पास वह कुआं, जहां पर वे दोनों नित्य प्रति स्नान करते वह जगह भी भुलाने योग्य नहीं है।
नाथोजी कहते है- हे वो। तुम कभी अवश्य ही जाना और मैनें तुझे जो जो भी पवित्र स्थल बतलाये है उन्हीं के दर्शन कर के कृतार्थ होना है। दारानगर विदुर कुटि से श्री देवजी ने आगे जाने की इच्छा प्रगट की तो नहाने आदि के पट शिष्य रोने लगे। जिस प्रकार से रामजी वनवास को चले तो अयोध्या के लोग रोने लगे थे। उन्हें श्री देवजी ने दिलासा दी और कहा- मैं आपसे दूर नहीं हूं।
” नेहा था पण दूर न रहीबा ” जब भी आप लोग हदय में अन्तवृति से देखोगे तो मैं तुम्हारीं आत्मा रूप में विद्यमान रहूंगा। ऐसा कहते हुए श्री देवजी जमात सहित लोदीपुर धाम की स्थापना हेतु जाकर विराजमान हुए।
लोदीपुर के भक्त जनों ने आगत स्वागत किया, पग मंडा कर साथरी में स्थापित किये। न्यात जमात के लिए तम्बु लगाये। नाना प्रकार के व्यंजनों द्वारा न्यात जमात को भोजन देकर तृप्त किया। चारों वर्गों के लोग श्री देवजी के दर्शन करने के लिए आ रहे थे श्री देवजी श्री मुख से ज्ञान व्रवण करते थे, जीवों की खोज कर रहे थे परिक्रमा कर के दर्शन कर रहे थे। कोटि जन्मों के पापों को हरण कर रहे थे। चारों तरफ ज्योति स्वरूप परमात्मा का दर्शन कर के कृतार्थ हो रहे थे। लोगों ने आश्यर्च चकित नेत्रों से यह दृश्य प्रथम बार हो देखा था।
लोदीपुर के दारू और घाटम दोनों परम भक्त शांत दात चित थे। इस बात को सभी जानते थे दोनों हाथ जोडे हुए श्री देवजी के आगे खड़े प्रेमाश्रूओं की धारा प्रवाहित कर रहे थे भगवान की आधान कृपा से घाटम जी स्तुति करने लगे